कर्नाटक की निराशा में नहीं डूब कर, चार बड़े राज्यों की चुनावी तैयारी में जुट गयी है भाजपा
लोकसभा चुनाव से पूर्व अब जिन चार राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव होना है, उसमें तीन हिन्दी शासित प्रदेश हैं।

कर्नाटक चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी अपने दूसरे लक्ष्य पर निकल पड़ी है। लोकसभा चुनाव से पूर्व अब जिन चार राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव होना है, उसमें तीन हिन्दी शासित प्रदेश हैं। इसमें से राजस्थान को लेकर भारतीय जनता पार्टी काफी आश्वस्त है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक तरफ राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ उन्हीं के सचिन पायलट जैसे नेता मोर्चा खोले हुए हैं तो राजस्थान में प्रत्येक पांच वर्षों के बाद सरकार बदलने की परिपाटी भी रही है।
बात मध्य प्रदेश की कि जाए तो यहां पिछली बार बीजेपी-कांग्रेस किसी को भी बहुमत नहीं मिला था, लेकिन कांग्रेस ने यहां गठबंधन की सरकार बना ली थी, जिसके मुखिया कमलनाथ जैसे तेज तर्रार नेता थे, परंतु बाद में पासा ऐसा पलटा कि बीजेपी फिर से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ गई और शिवराज सिंह की मुख्यमंत्री के रूप में पुनः ताजपोशी हो गई थी। इसलिए मध्य प्रदेश को लेकर बीजेपी चिंतित नजर आ रही है। राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ से भी बीजेपी को काफी उम्मीदें हैं। यहां जिस तरह से नक्सली पांव पसार रहे हैं उससे यहां की कांग्रेस सरकार पर उगलियां उठ रही हैं, इसके अलावा यहां की जनता सीएम बघेल से भी सब संतुष्ट नहीं है। पिछली बार के विधानसभा चुनाव में यहां बीजेपी को अप्रत्याशित रूप से हार का सामना करना पड़ा था, हाल फिलहाल में यहां बीजेपी को उस समय बड़ा छटका लगा जब छत्तीसगढ़ में भाजपा के सबसे बड़े आदिवासी नेता नंदकुमार साय कांग्रेस में शामिल हो गए। वे 3 बार विधायक, 3 बार लोकसभा सदस्य, दो बार राज्यसभा सदस्य रहे और अविभाजित मध्य प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष भी रहे। साय जनसंघ के समय के पार्टी के नेता हैं। छत्तीसगढ़ में एक तिहाई आबादी आदिवासियों की है और लगभग इतनी ही सीटें 29 (90 में से) उनके लिए आरक्षित हैं।
बात तेलंगाना की कि जाए तो यहां पिछले कुछ समय में बीजेपी ने बहुत मेहनत की है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा चुनाव के लिए यहां सियासी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। कभी बीजेपी के लिए अछूत रहे इस राज्य से पार्टी को काफी उम्मीदें हैं। ग्रेटर हैदराबाद नगर निकाय के चुनावी नतीजों से भी पार्टी को दक्षिण भारत के इस महत्वपूर्ण सूबे में उम्मीद की किरण दिख रही है। बीजेपी को तेलंगाना के पिछले विधानसभा चुनाव यानी साल 2018 के विधानसभा चुनाव में महज एक सीट पर जीत मिली थी, परंतु 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन में सुधार हुआ और पार्टी चार सीटें जीतने में सफल रही। विधानसभा क्षेत्र के लिहाज से देखें तो बीजेपी भले ही एक सीटें जीतने में सफल रही हो, लेकिन 2019 में जिन चार लोकसभा सीटों पर जीती थी, उस लिहाज से उसे 21 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में इस प्रदर्शन ने तेलंगाना बीजेपी में उत्साह का संचार कर दिया और पार्टी को सूबे में सियासी संभावनाएं बेहतर नजर आने लगीं।
खैर, तमाम किन्तु परंतुओं के बीच 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी को उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक उम्मीद है। इसी राज्य से सबसे अधिक 80 सांसद चुने जाते हैं, यह संख्या लोकसभा की कुल 543 सीटों का करीब 15 फीसदी है। केन्द्र में सरकार बनाने के लिए 272 लोकसभा सदस्यों की जरूरत पड़ती है, इसमें से 80 यानी करीब तीस फीसदी सीटें तो अकेले उत्तर प्रदेश से ही आती हैं। संभवतः इसीलिए बंगाल में बैठी ममता बनर्जी से लेकर बिहार में बैठे नीतीश कुमार तक सभी को दिल्ली की राजनीति चमकाने के लिए सबसे अधिक 'ऊर्जा’ यहीं से मिलती हुई दिखती है। कई गैर हिन्दी राज्यों के राजनैतिक पुरोधा भी समय-समय पर यूपी में अपनी किस्मत आजमाने को व्याकुल दिखाई देते रहते हैं।
उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी सियासी ताकत यह है कि यहां से जो आवाज उठती है वह जल्द ही पूरे देश में सुनाई पड़ने लगती है। यह सिलसिला काफी पुराना है। सबसे पहले कांग्रेस ने यूपी की सियासी महत्ता को समझा था, इसीलिए दिल्ली की गद्दी पर सबसे अधिक समय तक बैठने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने यूपी में कांग्रेस को कभी कमजोर नहीं होने दिया। भले ही नेहरू-गांधी परिवारवाद की सियासत का आरोप लगता रहता हो, परंतु परिवार से इत्तर यूपी में कई बड़े कांग्रेसी नेता भी नेहरू-गांधी के नाम पर संसद की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाब हो जाते थे। नेहरू-गांधी के नाम पर देश-प्रदेश में चुनाव होता था। यूपी में सबसे लम्बे समय तक राज करने का रिकार्ड भी कांग्रेस के पास है। राजीव गांधी की मौत के पश्चात सोनिया गांधी ने भी यूपी को काफी तवज्जो दी थी, लेकिन जबसे कांग्रेस में राहुल गांधी का दबदबा बढ़ा तबसे यूपी कांग्रेस से दूर होता चला गया। यूपी से कांग्रेस दूर हुई तो केन्द्र की सत्ता भी उसके लिए मुसीबत का सबब बन गई। कांग्रेस यूपी में पस्त पड़ी तो भारतीय जनता पार्टी ने यहां अपनी पैठ बनाना शुरू कर दिया।
इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओं का नारा इतना सश्क्त था कि इससे सरकारें बन और बिगड़ जाती थीं। यह और बात है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक के 52 साल के सियासी सफर में भारत को 12 प्रधानमंत्री मिले लेकिन गरीबी और भूख का मुद्दा जस का तस रहा। सभी प्रधानमंत्रियों ने गरीबी हटाने के पुरजोर दावे किए, लेकिन देश में गरीबी कितना हटी ये आंकड़ों तक ही सीमित रहा। 2014 में भी बीजेपी गरीबी और महंगाई को मुद्दा बनाकर केंद्र की सत्ता में आई थी। 2014 के चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी खुद को गरीब का बेटा बताते रहे। सत्ता में आने के बाद शुरुआती सालों में गरीबी हटाने के लिए कई दावे किए गए। मसलन- 2022 तक सबको आवास और किसानों की दोगुनी आय करने की घोषणा की, लेकिन 2022 जाते-जाते मोदी सरकार बैकफुट पर आ गई। सरकार ने अब फिर से 2030 तक गरीबी हटाने का लक्ष्य रखा है।