आचार्य शंकर की दक्षिण दिशा में दिग्विजय यात्रा : पुरी शंकराचार्य

 हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद महाभाग की दक्षिण की ओर दिग्विजय यात्रा की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि व्यासपीठ और राजपीठ में सैद्धान्तिक सामञ्जस्य सधने पर सुसंस्कृत , सुशिक्षित , सुरक्षित , समृद्ध , सेवापरायण , स्वस्थ और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाज की संरचना सुनिश्चित है। आचार्य शंकर स्वधर्मनिष्ठ महामना राजा सुधन्वा और अपने अन्य शिष्यों के सहित दिग्विजय की भावना से अपने अन्य सहस्त्रों शिष्यों के सहित सेतु की ओर चल पड़े। उस शाक्त बहुल क्षेत्र में हीन आचरण के कारण जाति बहिष्कृत ब्राह्मण शक्ति की उपासना के नाम पर मद्यपान को परम धर्म समझते थे। शिवावतार शंकर से उनका विचित्र शास्त्रार्थ हुआ।

आचार्य शंकर की दक्षिण दिशा में दिग्विजय यात्रा : पुरी शंकराचार्य

जगन्नाथपुरी  । हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद महाभाग की दक्षिण की ओर दिग्विजय यात्रा की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि व्यासपीठ और राजपीठ में सैद्धान्तिक सामञ्जस्य सधने पर सुसंस्कृत , सुशिक्षित , सुरक्षित , समृद्ध , सेवापरायण , स्वस्थ और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाज की संरचना सुनिश्चित है। आचार्य शंकर स्वधर्मनिष्ठ महामना राजा सुधन्वा और अपने अन्य शिष्यों के सहित दिग्विजय की भावना से अपने अन्य सहस्त्रों शिष्यों के सहित सेतु की ओर चल पड़े। उस शाक्त बहुल क्षेत्र में हीन आचरण के कारण जाति बहिष्कृत ब्राह्मण शक्ति की उपासना के नाम पर मद्यपान को परम धर्म समझते थे। शिवावतार शंकर से उनका विचित्र शास्त्रार्थ हुआ।

आचार्य शंकर ने आगमिक अद्भुत युक्तियों के द्वारा श्रोताओं को आश्चर्य चकित तथा आह्लादित करते हुये उन वाममार्गियों को निरुत्तर किया। श्रीरामेश्वरम् की समर्चा के अनन्तर पूज्य चरण ने पाण्ड्य, चोल तया द्रविड़ों को अपने वश में किया। तदनन्तर परिकर सहित वे हस्ति गिरि की मेखला पर अवस्थित काञ्ची पहुँचे। वहाँ उन्होंने परविद्या के अनुरूप भगवती का भव्य मन्दिर बनवाकर श्रुति सम्मत समर्चा को प्रचिलत कर वामपन्थियों से उस क्षेत्र को रिक्त किया। श्रीभगवत्पाद की समर्चा की भावना से समागत आन्ध्रों को अनुग्रहीत कर, वेंकटाचल को प्रणाम कर वे विदर्भ की राजधानी बरार पहुँचे। विदर्भ राज ने श्रीभगवत्पाद का अभिनन्दन किया। मद्य आदि सेवन परायण भैरव तन्त्र के समाराधकों को भगवत्पाद ने अपने शिष्यों से परास्त कराकर वैदिक मार्ग की स्थापना की। तदनन्तर नमनीय महाभाग ने कर्णाटक क्षेत्र की यात्रा का निश्चय किया।



विदर्भ राज ने निवेदन किया कि भगवन् - वह भूभाग कापालिकों के कपटजाल से व्याप्त है। वे वेद विद्वेषी हैं ; उन्हें वैदिक मनीषियों का उत्कर्ष सर्वथा असह्य है। उन क्षुद्र तथा क्रूर कापालिकों के आतंक से त्रस्त क्षेत्र की यात्रा आप ना करें , ऐसी मेरी भावना तथा आपसे प्रार्थना है। विदर्भ राज की बात सुनकर क्षत्रिय प्रवर सुधन्वा ने कहा कि हे यतिराज , मुझ धनुर्धर भक्त के जीवित रहते उन पामरों से क्या डर है। कापालिकों के कुचक्र को उच्छिन्न करने की भावना से सर्वशास्त्र पारङ्गत श्रीभगवत्पाद ने उल्लासपूर्वक उस क्षेत्र की यात्रा की। उनके आगमन का सन्देश प्राप्त कर क्रकच नामक कापालिक प्रमुख यतिश्रेष्ठ के सम्मुख आया , वह मदोन्मत्त था। चिताभस्म से लिप्त उसका शरीर था। उसके एक हाथ में नरखोपड़ी थी और दूसरे हाथ में त्रिशूल था। स्व अनुरूप परिकर सहित आचार्य के समीप आकर उसने कहा कि चिताभस्म का लेप करना उचित है। पवित्र नरमुण्ड को धारण करना शुभ है। भूतनाथ भैरव की आराधना विहित है। रुधिराक्त नरमुण्डों तथा मद्य से भगवान् भैरव की समर्चा एवम् कमल नयनी रमणियों का समालिङ्गन सुर दुर्लभ नरजन्म की सार्थकता है। ऐसा होने पर भी मृत्पात्र मात्र से सन्तृप्त आप नरजीवन को व्यर्थ ही क्यों विलुप्त कर रहे हैं। उस कापालिक के स्वसिद्धान्त अनुरूप प्रलाप को सुनका राजकुल दिवाकर सुधन्वा ने कापुरुष कहकर उसकी निन्दा की और परिकर सहित उसे वहाँ से पलायन करनेके लिये विवश किया। उसने स्वयं को तिरस्कृा समझा, उसके ओठ काँपने लगे। उसकी भृकुटी तन गयी , आँखें लाल - लाल हो गयीं। भागते - भागते उसने श्वेत परशु उठाकर प्रतिज्ञा किया कि यदि मैं तुम सबके मस्तकों को छिन्न - भिन्न नहीं किया ; तो मैं क्रकच नहीं।